अजीत भारती की ‘घरवापसी’ पढ़ कर खत्म की है, थोड़ा सा प्रेरित भी महसूस कर रहा हूँ, कुछ किताबें होती है जो आपको हल्का सा टच कर जाती है, ‘घरवापसी’ भी उनमें से एक है।
उपन्यास के तीन मुख्य पात्र है मास्टरजी, रवि और बेगूसराय का एक गाँव। तीनों मुझे उपन्यास से जोड़ने में सफल हुए है। उपन्यास रवि के एक प्रश्न पर है कि उसे क्या बनना है ?
इस प्रश्न के पीछे लेखक अतीत के गाँव से लेकर वर्तमान के गाँव का भी चित्रण करते है जिसमें वे पूरे सफल भी हुए है।
किताब की जो जान है वो है गाँव का इंटर का दो दोस्त, एक लड़की, एक गाँव और एक मास्टरजी, ऐसा पढ़कर शायद आपको लग सकता है कि ये कोई बॉलीवुडिया कहानी होगी जिसमें लड़का-लड़की और विलेन उसका बाप हो पर ऐसा नहीं है, ये कहानी एक आम पर गहरी कहानी है जो वास्तविकता जैसी है।
अपनी पत्नी से मारपीट करता रज्जिब्वा , छठ में सड़क की सफाई करते लड़के, गाँवों के बीच टूर्नामेंट छोड़ कर क्रिकेट और मैच में बयमानी पर लत्तम-लताई, बबन भैया का दुकान, मैथ माथाखराब वाला विषय और चूतड़ का चबूतरा करने वाले जैसे डायलॉग सब कंही न कंही देखा हुआ सा लगता है और किताब से आपको बांधे रखता है।
किताब की गलतियों के बारे में बात करें तो कुछ जगह के वर्ड मिस्टेक के अलावा आपको ज्यादा कुछ नज़र न आएगा पर हाँ एक अधूरी इच्छा जरूर रह जाती है “कि रवि का विद्यालय से निकाले जाने के बाद वो बम्बई में जाकर कैसे बसा और मंजरी से उसका विवाह कैसे हुआ ?” को पढ़कर महसूस कर पाते जो ज्यादा मजा आता
अंत में किताब की कुछ पंक्तियां लिखना चाहता हूँ
‘हम तो धोबी के कुत्ते हो जाते है जैसे ही घर छोड़ते है। बम्बई में बिहारीं और बिहार में बम्बई वाले…घर छोड़ने वाले तो कंही के नही होते।’
8/10
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