उजबक की ‘मैटीरियल हो बे !’ पढ़ कर आज खत्म की । कहानी अरुण की है , अरुण की असफलता की है और अरुण की लक्ष्य की हैं । पुस्तक की रिलीज होने से पहले एक अंश पढ़ा था तभी से सोच रखा था कि इसे पढ़ना हैं , अरुण को पढ़कर ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी अपने को पढ़ रहा हूँ , कोई ऐसा जिसे मैं जानता हूँ , कोई ऐसा जो हमारे आसपास ही रहता हैं ।
प्रारंभिक शिक्षा में अव्वल रह रहे छात्रों से अक्सर उम्मीदें बढ़ जाती हैं पर भविष्य में उनका असफल होना हर किसी को आश्चर्य में डाल देता हैं ।
हर कोई जानता हैं कि वो मैटीरियल है कि नही है पर ‘मैटीरियल हो बे!’ बताती हैं कि सिर्फ मैटीरियल होना काफी नहीं हैं । आदमी बाहर स्वंय को साबित करने के लिए लड़ता रहता हैं पर जितना वो बाहर लड़ता रहता हैं उतनी ही लड़ाई उसके अंदर भी चल रही होती हैं । खुद को जीतना दुष्कर कार्य है और साथ ही खुद को मित्र बना लेना भी आसान नही हैं , हमलोग खुद के लक्ष्य में खुद को ही शामिल नही कर पाते है इसलिये असफ़ल रह जाते हैं ।
‘मैटीरियल हो बे !’ अच्छी किताब हैं । उलझे हुए लोगो को ये जरूर पढ़नी चाहिए । किताब का एक अंश साझा करना चाहूंगा ।
“कभी सोचा है, तुम्हारे दोस्त, जिनके साथ तुम सात-आठ बरस पहले जाम से जाम भिड़ाते थे, किसी मोटरसाइकिल पर बैठ कर लड़की का पीछा करते थे, उनके बाल-बच्चे हो गए हैं, तुम अब भी जा सकोगे उनके घर?
क्या करोगे जब तुमसे कमतर तुम्हारे बचपन की क्लास का बच्चा कमाते-कमाते अपना घर बनवा लेगा, छोटा ही सही, और तुम्हें मशवरा देगा,’सुनो भाई! कुछ बड़ा नहीं होता तो छोटे से शुरुवात करो, मैंने भी ऐसे ही किया था।’
क्या करोगे जब इंटरव्यू के लिए रक्खी तुम्हारी शर्ट-पैंट इंटरव्यू देते-देते पुरानी हो जाएगी, कहीं किनारे से उसके कुछ धागे उघड़ आएंगे, तुम नया खरीदना चाहोगे लेकिन तुम्हारे जेब में पैसे नहीं होंगे।
बबुआ! कनपटी के सफेद होते बाल, अकेली जिंदगी के आलस से देह पर चढ़ आई चर्बी और बैठ कर पढ़ते-पढ़ते निकल आए पेट को देखकर तुम्हारे पिता जी, जो बचपन में तुम्हारे हाथ में बल्ला देखते ही आग-बबूला हो जाते थे, कहेंगे,’कुछ स्वास्थ्य पर भी ध्यान दे लो, नहीं तो विवाह भी नहीं होगा।’
कल तक पापा तुमको पैसे देते थे खुलकर लेकिन जब तुम उन्हीं के मुंह से सुनोगे,’बेटा अब तुम्हें देने में कष्ट होता है, कुछ करो।’ तब क्या तुम्हारी आत्मा मर नहीं जाएगी?
तुम्हें लगता है मैं डरा रहा हूँ न बबुआ? मैं डरा नहीं रहा हूं बस बता रहा हूँ तीस के पार की बेरोजगार जिंदगी। तीस के पार आदमी अस्ताचल की ओर बढ़ता सूर्य होता है, उसे लगता है वह अभी भी सूर्य है, लेकिन ना! कोई उसे सलाम नहीं ठोंकता।
तुम बंद कमरे में बैठकर अपनी जिद पूरी करने के लिए, साबित करने के लिए तुम अब भी मटेरियल हो, पूरी शिद्दत से जी जान लगा दोगे, कहीं यह भी डरते रहोगे कि समाज को ‘क्या कर रहे हो, कहाँ हो आजकल?’ जैसे चुभते सवालों के जवाब देने से बेहतर है, अपने लक्ष्य की दिशा में सब झेलते हुए आगे बढ़ते रहना।
सफलता पाने के लिए तुम जी-जान लगा दोगे, बंद कमरे में बैठकर पढ़ते समय घर के खिलखिलाते बच्चों में तुम्हें सौंदर्य नहीं डिस्टर्बेंस नजर आएगा, तुम कुढ़ जाओगे, लेकिन कुछ न कर पाओगे और उसी में पिता जी किसी दिन पूछ लेंगे,’चोरों की तरह घर में क्यों बैठे रहते हो?’
तुम लोगों की नजर में खुद को सफल साबित करने में खुद को मार लोगे। किसी दिन कोई रिजल्ट आएगा और हो सकता है तुम्हें लोग कल फिर से सलामी देने लग जाँय, लेकिन क्या तुम वही रह जाओगे? तुम शायद बदल जाओगे तब तलक, उन सलामियों से तुम्हारे मन के तार झनझनाने नहीं लगेंगे।
तुम्हें मेरी बातें गप्प लग रही होंगी लेकिन यकीन मानो जो लिखा गया है, वह असल से कम ही है, तीस पार बेरोजगार जिंदगी बड़ी कठिन होती है बबुआ। विकल्प शेष नहीं रहते, प्रेमिका छोड़ कर जा चुकी होती है, परिवार की, समाज की उम्मीदें ध्वस्त होना शुरू हो जाती हैं, तुम्हें हर ओर निराशा दिखती है और सबसे बड़ी बात, तुम यह सब किसी से कह नहीं सकते क्योंकि तुम्हें यह भी लगेगा लोग तुम्हें नहीं समझ रहे।
डूबने से पहले सारी ताकत से हाथ-पैर मार लो। हो सकता है कहीं किनारे पहुंच कर सुस्ताने का मौका मिल जाए, नहीं तो लड़ना जीवन भर लिखा ही है। हर जगह, हर वक्त संघर्ष-यही है जीवन बबुआ।”
९/१०
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